स्वार्थ
जिससे प्राप्ति हो रही है--
उसे पूरण कर, उच्छल करके
प्राप्ति को अवाध करना ही
स्वार्थ का तात्पर्य है;--
प्राप्ति के उत्स की पूर्ति करने के बजाय
जहाँ ग्रहणमुखर हो जाता है,
स्वार्थ वहाँ भ्रान्ति के कवल में पड़कर
म्लान और मुह्यमान है निश्चय ! |36|
--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचंद्र, चलार साथी
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