चौर्य की परिणति
चोरी मत करो ;--
चाह की धृष्ट बुद्धिवृति
किसी को भी
उदवृत किये वगैर
अन्याय ढंग से, अज्ञात भाव से
परिपूरित होना चाहती है--
वही है चौर्य ;
चौर्य से बुद्धिवृति दिनोंदिन
दूसरे को क्षति पहुँचाकर
अपकर्ष की दिशा में अदृश्य हो जाती है
अर्थात, कर्म के द्वारा
जिसे करके इच्छा की पूर्ति करने में
बोध व ज्ञान के उन्मेष से वह प्राप्ति होती है--
वही चौर्य से आहत व अवसन्न होकर
अधर्म को आलिंगन करता है
इसीलिये उतनी घृणा, उतना पाप, उतनी हीनता है--
इसीलिये कहता हूँ,
इस चौर्यबुद्धि को प्रश्रय देकर
अपना एवं पारिपार्श्विक का
सर्वनाश न करो
सावधान हो जाओ ! |37|
--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, चलार साथी
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