अमृत और मरण
तुम जितना ही बहु में अनुरक्त होगे--
हर में हर ढ़ंग से--
एक को उपलक्ष बनाये बगैर,
तभी वह हर अनुरक्ति
पृथक भाव से,
नाना तरह से
विच्छिन्न-वृति की
सृष्टि सहित
तुम्हें छिन्न-भिन्न करके
तुम्हारे मूढ़त्व व मरण का पथ परिष्कार करेगी,--
और, जभी तुम
एकानुरक्ति को अवलंबन करके
बहु को आलिंगन करोगे--
वह बहु और बहु से सृष्ट वृत्तियाँ
वही एकानुरक्ति में निरोध लाभ कर
क्रमान्वय में विन्यस्त होकर
बोध व ज्ञान की उद्दीपना सहित
अमृत को निमंत्रित करेगी ! |44|
--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, चलार साथी
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