प्रयोजन के अनुपूरण में
आलस्य को प्रश्रय मत दो,
सेवा-तत्पर हो,
संवर्द्धना में
मनुष्य को अभिनंदित करो,--
साध्यानुसार, जैसा कर सकते हो
दूसरे के प्रयोजन के अनुपूरक हो,--
स्वयं तुष्ट और तृप्त रहकर
दूसरे को तुष्ट और तृप्त करो,--
देखोगे,
बिना चाहे भी
अर्थ, ऐश्वर्य तुममें
अवाध होकर रहेगा,
दरिद्रता-- दूर में खड़ी होकर
तुम्हें अभिवादन करेगी ! |30|
--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचंद्र, चलार साथी
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