प्रेम की चाह
प्रेम या प्रीति चाहती है
अपने प्रेमास्पद को
अपना जो कुछ है
सबको निचोड़ कर
जीवन, यश और वृद्धि में
प्रतिष्ठा करना ; ---
प्रेमास्पद ही उसका परमस्वार्थ है,
वह ऐसा नहीं चाहता है,
जो उनके प्रिय को
स्वार्थमंडित नहीं करता है, --
वह अपने जगत में ढूंढ़कर
जो भी पाता है --
जीवन, यश व वृद्धि के अनुकूल--
वही लाकर
अपने प्रेमास्पद को सुसज्जित कर
अपने को सार्थक विवेचना करता है,--
और, उसमें ही उसकी पुष्टि, तृप्ति और मुक्ति है ; --
वह उन्हें छोड़कर स्वाधीन होना नहीं चाहता,
प्रिय की अधीनता,
प्रिय की सेवा ही,
उसके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष हैं; ---
ऐसा कर
प्रेम अपने प्रिय को
बोध, ज्ञान, कर्म, जीवन और ऐश्वर्य में
प्रतुल करके
अज्ञान भाव से स्वयं भी
प्रतुल में प्रतिष्ठित होता है--
इसीलिये,
प्रेम इतना निष्पाप है,
प्रेम इतना महान है ! |48|
--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, चलार साथी
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