याजन से प्रिय-उपभोग
प्रेम या ज्ञान
ज्योंहि जीवन को उत्फुल्ल करता है,
त्योंहि याजन-प्रवृति उदग्रीव होने लगती है
नाना प्रकार नूतन मनुष्य की खोज में ;--
वह कहना चाहता है नाना तरह से, नाना ढंग से
अपना प्रिय जो है उनकी ही बातें,
और भोग करना चाहता है
नाना तरह से
ऐसा करके ;--
जभी देखोगे
यह खोज-बीन
और यह प्राप्ति
थमती जा रही है,
प्रिय के बोध और वृद्धि भी
तुम्हारे भीतर
मूढ़ हो रहे हैं ! |58|
--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, चलार साथी
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