काम की चाह
काम चाहता है
काम्य को
अपनी चाह के अनुसार
उपहार पाना,
वह काम्य को
सम्वृद्ध बनाने की बला को
वहन करने में बिल्कुल गैरराजी रहता है,--
यदि उसमें
उसके भोग का किसी प्रकार
व्यतिक्रम न हो; --
इसलिये काम मनुष्य को
मूढ़ बनाकर
उसके जगत से चोरी करके,
उतना तक अपनी सीमा में आबद्ध
रखना चाहता है
जितनी भोगलिप्सा
उसे जिससे उद्दीप्त बनाये रखे ;--
और उसके अवसान में ही
सबका अवसान है !
इसलिये उसकी वृद्धि नहीं है,
जीवन और यश संकोचशील है,
तमसा के अतल गह्वर में
मरण-प्रहेलिका सहित
उसकी स्थिति है--
वही पाप है,
इसलिये वह दुर्बल, अवसन्न और अज्ञान है,
समझ कर देखो कि,
क्या चाहते हो ? |49|
--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, चलार साथी
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