बुधवार, सितंबर 29

Ichchha-Vilaasi

इच्छा-विलासी 

जो चाहते हो--
तुम्हारे चलन, चरित्र, वाक्, व्यवहार और क्रमागति
अर्थात लगे रहना
चाहे जैसे या जिस प्रकार उसे पा सकते हो--
उस दिशा में उसके किनारे भी नहीं जाते
या जाने में कष्ट होता है,--
बेशक समझ लो--
तुम्हारी वह चाह खांटी नहीं है
प्रत्युत वह चाह की केवल विलासिता है !  |20|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचंद्र, चलार साथी

Khaanti Chaah Ki Kasauti

खांटी चाह की कसौटी 

अपनी कोई चाह के लिये 
विपरीत प्रवृत्तियों की अवहेला नहीं कर पा रहे हो-- 
यही है जानने का उपाय कि
तुम्हारी चाह खांटी नहीं है !  |19|

--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचंद्र, चलार साथी

सोमवार, सितंबर 27

Chintaa-Vilaasi

चिन्ता-विलासी

जभी देखो
तुम्हारी कोई चिन्ता और चलन
कर्म को आवाहन नहीं करता है
या उसमें लगी नहीं रहता--
समझ लो
वह तुम्हारी चिन्ता या कल्पना की
विलासिता है !  |18| 

--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, चलार साथी

Prem Mein Dakshataa aur Nipuntaa

प्रेम में दक्षता और निपुणता 

एक मात्र प्रेम ही अविष्कार कर सकता है--
कि उसके प्रिय किस प्रकार
जीवन-यश-प्रीति और वृद्धि में उन्नत होकर
अपने पारिपार्श्विक में उच्छल हो सकते हैं,--
इसलिये
प्रेम या प्रणय ही मनुष्य में सहज ज्ञान को समावेश कर
दक्षता और निपुणता सहित
उसे वास्तविकता में
प्रतिष्ठित करता है !  |17|

--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, चलार साथी

Krutaarthataa Ka Rajlakshan

कृतार्थता का राजलक्षण

विश्वस्तता, कृतज्ञता और कर्मपटुता के साथ
विपत्तियों के जरिये
जिसका शुभ और सुयोग दर्शन
व्यक्त होता है--
अतिनिश्चयता सहित
तुम कह दे सकते हो--
वह जैसा ही क्यों न हो--
कृतार्थता का मुकुट
उसके मस्तक पर
सुशोभित होकर रहेगा ही !  |16|

--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, चलार साथी

Siddhilaabh

सिद्धिलाभ 
करना, लगे रहना, देखना 
और 
अनुधावन करना-- 
ये कतिपय ही 
बोध, विज्ञान, दक्षता 
और सिद्धि की 
प्रतिष्ठा करते हैं !  |15|
--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, चलार साथी

Charitra-Nirnay

चरित्र-निर्णय
तुम्हारा चलन और वचन ही 
कह देता है-- 
तुम कैसे मनुष्य हो, क्या चाहते हो-- 
और क्या पा सकते हो !  |14|
--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, चलार साथी

Kapatataa

कपटता 

कपटता पारिपर्श्विक को
भ्रांत कर
अपनी उन्नति के द्वार को
बंद कर देती है !  |13|

--: श्री श्री ठाकुर अनुकूलचंद्र, चलार साथी

शुक्रवार, सितंबर 24

Dosh-Riktkaran

दोष-रिक्तकरण
यदि किसी का दोष देख लेते हो,--
तुम्हारे माथे में वह मौजूद ही रहे--
तो उसके कारण व अवस्था को अनुसंधान कर--
यथायथ भाव से समझकर कि
उसके लिये वह कैसे संभव हुआ --
सहानुभूति का एक भाव लेकर
जो तुम्हारे माथे में मौजूद है 
उसे इस प्रकार रिक्त कर दो
जिससे तुम्हारे साथ वैसी घटना ही
अस्वाभाविक हो जाये !  |12|
--: श्री श्री ठाकुर अनुकूल चन्द्र, चलार साथी