आदर्श या गुरु और आदर्शानुरक्ति
जिनकी सेवा, साहचर्य और अनुरक्ति सहित अनुसरण
मनुष्य को जीवन, यश और वृद्धि में
क्रमोन्नत कर दे, --
जिनके प्रति एकान्तिक अनुरक्ति वा भक्ति
अटूट भाव से निबद्ध रहने पर
पारिपार्श्विक और जगत
उसमें किसी प्रकार विक्षेप नहीं ला सके,
वह विक्षिप्त संघात सम्वद्ध व विन्यस्त होकर,
सार्थकता लाभ करके,
भाव, ज्ञान और बोध में सम्वृद्ध होकर
अमृत को आलिंगन करे
वे ही हैं आदर्श, इष्ट या गुरु ; --
इसलिये
इष्ट, आदर्श या गुरु में एकान्तिक अनुरक्ति
मनुष्य के जीवन के हित में उतना आवश्यक है ;
धर्म को अटूट कर
जीवन को वहन करने में ये आदर्श, इष्ट या गुरु ही हैं
प्रधान आवश्यकीय |
तुम उनमें अपनी अनुरक्ति, भक्ति, प्रेम को न्यस्त करके--
उनको ही परम स्वार्थ विवेचना कर
उनका ही अनुसरण करो--
कृतार्थ होगे ! |47|
--: श्रीश्रीठाकुर अनुकूलचन्द्र, चलार साथी